अघेार शब्द अ व घोर शब्दो से मिलकर बना है घोर शब्द का अर्थ है कि जो अपने अति को न प्रदर्शित करता हो अर्थात सम्यक हो,साधना में क्रिया व स्वरूप दोनो की सम्यता ही अघोर की उत्पत्ति करती है, इसी को अभेद भी कहा जाता है,सत्य में भेद रहित साधना अघोरी ही करता है,एक विकराल रूपधारी औघड जहां प्रक़ति की विकरालता पर विजय पाने का प्रयास करता है वही एक सौम्य रूप धारी औघड प्रकति की सौम्यता से समंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है,एक औघड की साधना घोर होती है क्यो कि इस घोर की दुनिया के पार उसे अघोर की सत्ता पर विजय पाना होता है,उसकी सधना सर्वागी होती है प्रकति व परा के सभी अंगो के साथ वह सामंजस्य स्थपित करने का प्रयास करता है,
साधारण शब्दो में समाज को जो पसन्द होता है और समाज को जो नही पसन्द होता हैं,मानव जीवन के लिए जो सुखकारी है और मानव जीवन के लिए जो दुख कारी है उन सभी के साथ अपने को आत्मसात करना ही अघोर साधना की सबसे उत्क्रिष्ट प्रकया हैंा
प्रकत का जो स्वरूप है वह जितना धनात्मक होता है उतना ही ऋणत्मक भी होता है,एक औघड से अच्छी तरह इसे कोइ नही समझ सकता हैं,ब्राम्ळाण्ड का जो स्वरूप है वह सकारात्मक व नकारात्मक दोनो ही उजाओ का अपार भण्डार हैं दोनो ही के साथ सामंजस्य बनाने के साथ अघेर के मार्ग पर प्रसस्त हो जाता है ा
आशीष त्रिपाठी का काव्य संग्रह शान्ति पर्व
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शान्ति पर्व पढ़ गया। किसी पुस्तक को पढ़ कर चुपचाप मन ही मन संवाद की आदत है।
पहली बार यह बातचीत बाहर आने को मचली।...
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7 महीने पहले
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